(संकलन एवं लेखन – सुनील जी गर्ग, 22 जून 2024, ज्येष्ठ पूर्णिमा, कबीर प्राकट्य दिवस)
आज के एक प्रसिद्ध शिक्षक श्री विकास दिव्यकीर्ति ने अपने एक संभाषण में यूँ कहा - "अगर मैं पिछले एक हजार वर्ष में किसी एक महापुरुष की विशेष चरण वंदना करना चाहूँगा, तो वो होंगे कबीर". इससे मिलती जुलती भावना आज के एक अन्य वेदान्त प्रचारक आचार्य प्रशांत से भी सुनी. वेदों की वाणी को पूरे भारत में पहुँचाने का काम अगर देवतुल्य आदि शंकराचार्य ने किया है, तो अद्वैत की मूल भावना को जन भाषा में इस देश के हर निवासी के हृदय पर अंकित करने का काम कबीर ने भी किया है. उसके बाद तो तुलसी, सूर, मीरा, रसखान, रहीम, तुकाराम, रैदास इत्यादि अनेक महापुरुषों ने अपने सगुन, निर्गुण हर भाव से इस भूभाग को सिंचित रखा और हिन्दू दर्शन का सनातन स्वरूप बनाए रखा.
जीवन परिचय:
ऐसा मुख्य मत है कि संत कबीर इस धरती पर सन 1398 से सन 1518 तक रहे. विद्वान उनके जन्म के समय और उनके कुल इत्यादि के बारे में एकमत नहीं हैं पर ये माना जाता है कि उनका लालन पालन वाराणसी में एक जुलाहा परिवार में नीरू और नीमा नामक दंपति की देख रेख में हुआ. उन्होंने स्वयं भी जीवनभर कपड़ा बुनने का कार्य किया. कपड़ा बुनते बुनते ही वो कई सारगर्भित बातें कहते थे, जिनको सुनकर उनकी ख्याति फैलती गई. काशी के प्रसिद्ध संत रामानन्द जी ने उन्हें दीक्षा दी. कबीर के कथनों को उनके शिष्यों ने ही संग्रहीत किया है. उनके प्रमुख शिष्य थे भागोदास और धर्मदास. उनकी रचनाओं के संकलन कबीर सागर, कबीर साखी, कबीर बीजक, कबीर दोहावली, कबीर ग्रंथावली इत्यादि नामों से उपलब्ध हैं. कबीर अपनी रचनाओं में अक्सर धार्मिक कट्टरता पर चोट करते नजर आते हैं, पर हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उनका संत मानते थे. कबीर के कथनों का प्रभाव श्री गुरुनानक देव (1469-1539) और संत तुलसीदास (1511-1623) जैसे महापुरुषों पर भी जान पड़ता है. सिखों के प्रमुख ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब, जिसका सम्पादन पाँचवे गुरु श्री गुरु अर्जन देव जी ने किया, में कबीर के 224 कथन, शबद के रूप में शामिल किए गए हैं. कबीर की रचनाएँ अनेक स्वरुपों जैसे दोहे, साखियाँ, शब्द, पद, रमैनी, उलटबांसियाँ, कहरा, वसंत, चाचर, बेली, हिडोला इत्यादि में उपलब्ध हैं. सच तो ये है कि उनका समाज पर इतना प्रभाव था कि अनेक लोगों ने कई बार उनकी कही बातों को अपने अनुसार ढाला या फिर उनसे मिलती जुलती भाषा में खुद ही रचना कर डाली. इसीलिए कई बार लोग इन बातों पर उलझते पाए जाते हैं कि अमुक रचना कबीर की है भी या नहीं, या फिर कोई दोहा यूँ नहीं यूँ कहा जाएगा. महत्वपूर्ण बात ये है कि हम उनकी भावना को समझें.
कबीर के राम:
वे एक परमेश्वर में विश्वास करते थे और उनकी कही बातें अद्वैत वेदान्त की अवधारणाओं से मेल खाती हैं. उन्होंने राम को भी अक्सर अपने काव्य का विषय बनाया है. वो उनको निर्गुण और समाज को दिशा दिखाने वाले ईश्वर के रूप में इंगित करते हैं. निर्गुण रूप के बारे में वर्णन करते हुए भी वो अक्सर एक सगुण भक्त के समान बिल्कुल बिछ से जाते हैं. जैसे उन्होंने कहा -
कबीर कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाऊँ। गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जाऊँ।।
"मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया है। मेरे गले में राम की ज़ंजीर पड़ी हुई है, मैं उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज है". राम की भक्ति से ही उनको इतना आत्मविश्वास मिला कि वो कह बैठे -
बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार। एक कबीरा ना मुआ, जाके राम अधार।।
"सारा संसार नश्वर है, यहाँ न रोगी बचता है न उसका इलाज करने वाला. यहाँ तो वही बचता है जो राम की भक्ति करता है." ऐसी ही बात गीता में कृष्ण भी करते हैं, जब वो कहते हैं कि मेरे भक्त का पुनर्जन्म नहीं होता और उसको मृत्यु का भय भी नहीं रहता. स्वामी रामानन्द से दीक्षा के माध्यम से ही उन्हें 'राम राम' का गुरुमंत्र मिला था, इसीलिए उन्होंने कहा –
राम नाम सुमिरन करै, सदगुरु पद निज ध्यान । आतम पूजा जीव दया लहै सो मुक्ति अमान ।।
"जो राम नाम का सुमिरन और सदगुरु के चरणों का ध्यान करता है, जो आत्मा से ईश्वर की पूजा करता है और जीवों पर दया भाव रखता है, उसे निश्चित ही मुक्ति मिलती है." नवधा भक्ति में से कबीर सखा भाव अपनाते हैं और यूँ कहते हैं -
मेरे संगी दोइ जणा, एक वैष्णौ एक राम । वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम ।।
"मेरे तो ये दो ही संगी साथी हैं, एक वैष्णव और दूसरा राम. राम जहां मुक्ति के दाता हैं तो वहीं वैष्णव नाम स्मरण करवाता है. तो मुझे किसी और साथी से क्या लेना-देना". यहाँ वैष्णौ शब्द का प्रयोग विष्णु के रूप में या फिर अपने अंदर के विष्णु उपासक के रूप में समझ जा सकता है. आत्म साक्षात्कार के लिए भक्ति में कामना नहीं होनी चाहिये, ये भी कबीर बखूबी समझते थे इसीलिए उन्होंने कहा -
सहकामी सुमिरन करै, पाबै उत्तम धाम । निहकामी सुमिरन करै, पाबै अबिचल राम ।।
"जो फल की आकांक्षा से ईश्वर का स्मरण करता है, उसे अति उत्तम फल प्राप्त होता है. लेकिन जो किसी इच्छा या आकांक्षा के बिना ईश्वर का स्मरण करता है उसे आत्म साक्षात्कार का लाभ मिलता है." यहाँ राम को अबिचल कह दिया है कबीर ने, जो वेदान्त के अक्षर, अमिट, अगोचर, अविनाशी, अनादि, अतुलनीय, अनंत, अनुपम रूप के वर्णन से मेल खाता है. एक ईश्वर को अलग धर्मों में अलग नामों से बुलाने पर भी उन्होंने समझाते हुए कहा है -
राम रहीमा ऐक है, नाम धराया दोई । कहे कबीर दो नाम सूनि, भरम परो मत कोई ।।
"राम और रहीम एक ही ईश्वर के दो नाम दिए गए हैं. कबीर कहते हैं कि ये दो नाम सुनकर किसी तरह का भ्रम नहीं होना चाहिए". संसार की मोह माया कैसे हमें भक्ति से दूर कर सकती है, इस पर कबीरदास जी ने खूबसूरती से कहा है -
कबीर माया पापणीं, हरि सूं करे हराम । मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम ।।
"यह माया बड़ी ही पापिन है. यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख करती है और उनके मुंह पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती". दिखावटी भक्तों पर भी कबीर सीधा कटाक्ष यूँ करते हैं -
माला तिलक पहरि मनमाना,लोगनि राम खिलौना जाना॥
थोरी भगति बहुत अहकारा, ऐसे भगता मिलै अपारा॥
"मनमाने ढंग से माला-तिलक धारण करने वाले लोग राम को खिलौना समझ कर तरह-तरह से सजाते हैं. ऐसे बहुत से दिखावटी लोगों मे सच्ची भक्ति तो बहुत कम होती है और इनमे अहंकार बहुत होता है". राम के बारे में अपनी गहरी समझ को कबीर निम्नलिखित लाइनों में पूरी तरह दिखा देते हैं -
चार राम हैं जगत में, तीन राम व्यवहार । चौथ राम सो सार है, ताका करो विचार ॥
"इस जगत में चार तरह के राम पहचाने जा सकते हैं, जिसमें से आम तौर पर तीन तरह के राम तो रोजमर्रा के व्यवहार में जाने जाते हैं, पर राम का चौथा स्वरूप ही सारतत्व है जिसके बारे में सबको चिंतन और मनन करना चाहिये". चार राम वाली बात को और अधिक समझाते हुए कहते हैं कि -
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा ।
एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा॥
"एक वो राम है जो त्रेता युग में हुए और दुनिया उन्हें प्रेरणा दायक इतिहास पुरुष मान सगुन रूप में पूजा करती है. एक वो राम हैं जो अपने निर्गुण रूप में संसार के हर कण में विराजमान है. एक वो राम हैं जिनकी वजह से ये सारा संसार है और एक चौथा राम जो अकल्पनीय, अप्रतिम, अनुपम और पहली तीन बातों से भी अलग है". दरअसल कबीर अपने को राम के ऐसे ही परम रूप का उपासक कहते हैं. अपने को उसी चौथे राम से जोड़ते हुए वे ऐसा भी कह देते थे –
निर्गुण राम निरंजन राया, जिन वह सकल सृष्टि उपजाया।
निर्गुण सगुण दोउ से न्यारा, कहैं कबीर सो राम हमारा।
"एक तो वो निर्गुण, निरंजन (दोष रहित) राजा राम हैं, जिन्होंने ये सृष्टि रची है, पर मेरे तो राम निर्गुण और सगुण दोनों से ही अलग हैं". दरअसल कबीर आत्मा को ही राम कह रहे हैं. ये समझ में आता है जब वो ये कहते हैं –
घट घट राम बसत हैं भाई, बिना ज्ञान नहीं देत दिखाई।
आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई।
"हर चीज में राम हैं, जो ज्ञान न हो तो नहीं दिखते हैं और जैसे ही आत्म ज्ञान हो जाता है तो राम की पहचान हो जाती है". राम का नाम भजना वो आत्म ज्ञान प्राप्ति का एक मार्ग मानते हैं, तभी तो वो कहते हैं –
सगुण राम और निर्गुण रामा, इनके पार सोई मम नामा ।
सोई नाम सुख जीवन दाता, मै सबसों कहता यह बाता ॥
"राम सगुण हैं, निर्गुण भी हैं, पर इनसे भी ऊपर राम का नाम है, यह नाम ही जीवन में सुख लाता है, ये बात मैं सबसे कहता रहता हूँ". ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर के ठीक बाद के भक्ति कवि गोस्वामी तुलसीदास भी कबीर के इस " नाम की महिमा" वाले सिद्धांत से प्रभावित थे और अपने काव्य में उन्होंने इसे कई जगह उद्धरित किया है. इसीलिए कहा जाता है कि राम का नाम लिखा तो पत्थर भी पानी पर तैर गए. आत्मज्ञान के विषय में कस्तूरी की उपमा देते हुए कबीर ने सुंदर ढंग समझाया है. ये उनके प्रसिद्ध दोहे में इस प्रकार वर्णित है.
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि। ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ।।
"जिस प्रकार हिरण अपनी नाभि से आती सुगंध के विषय में नहीं जानता कि यह उसकी नाभि में से ही आ रही है, वह उसे इधर-उधर ढूँढता रहता है। उसी प्रकार मनुष्य भी अज्ञानतावश नहीं जानता कि ईश्वर उसी में निवास करता है और उसे प्राप्त करने के लिए दुनिया में जगह जगह ढूँढता रहता है। फिर अंत में कबीर के दर्शन का सम्पूर्ण अर्थ इसी बात में आ जाता है, जब वो अपने को राम के साथ एकाकार बता देते हैं.
राम कबीरा एक है, कहत सुनन के दोय । दो कर जो कोई जानिए, गुरु मिलिया नहीं होय ।।
"कहने सुनने में भले ही दो लगें पर राम और कबीर तो वास्तव में एक हीं हैं. जो लोग इन्हें अलग अलग समझते हैं उन्हें शायद स्वयं को सही मार्गदर्शन देने वाले गुरु नहीं मिले होंगे".
प्रसिद्ध रचनाएँ:
कबीर के बारे में आप जितना पढ़ेंगे चमत्कृत होते जाएंगे. उनके साथ जन मानस अनेक चमत्कारों को भी जोड़ता है, पर असली चमत्कार तो आपके मन-मस्तिष्क में होगा जब आप उनकी रचनाओं को पढ़ेंगे और गुनेंगे. कबीर की अनेक रचनाएँ हैं, उनका कुछ रसास्वादन इस लेख के पाठक भी कर सकें इसलिए उनमे से कुछ को यहाँ नीचे दिया जा रहा है. कबीर की रचनाओं का मूल रूप तो उपलब्ध नहीं है पर जिस रूप में उनके अनुयायी उसे लिखते पढ़ते आए हैं, वो भी आनन्द देने के लिए पर्याप्त हैं.
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे , आपहु शीतल होय ।।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । पंथी को भी छाया नहीं, फल लागे अति दूर ।।
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाए । मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए ।।
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय ॥
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे. एक दिन ऐसो आएगा, मैं रौंदूंगी तोहे ।।
संत न छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत । चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत ।।
बुरा जो देखन मैं चला , बुरा ना मिलया कोय । जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय ।।
निंदक नियरे राखिए , आंगन कुटी छवाय । बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय ।।
जो तोकू कांता बुवाई , ताहि बोय तू फूल । तोकू फूल के फूल है , बाको है तिरशूल ।।
मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ । चारों जुग कै महातम, कबिरा मुखहिं जनाई बात ।।
कबीरा खड़ा बाजार में , मांगे सबकी खैर । ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर ।।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय । ढाई आखर प्रेम का , पढ़े सो पंडित होय। ।
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय । बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय ।।
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार । याते तो चाकी भली जो पीस खाए संसार ।।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । करका मनका डार दे, मन का मनका फेर ।।
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय । ता चढि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय ॥
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । सार सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ।।
जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान । मोल करो तलवार का , पड़ा रहन दो म्यान ।।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही । सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए । मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।।
चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ।।
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल । लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गयी लाल ।।
धीरे–धीरे रे मना , धीरे सब कुछ होय । माली सींचे सौ घड़ा , ऋतु आए फल होय ।।
आए हैं तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर । एक सिंघासन चढ़ चले, एक बंधे जंजीर ।।
सुखिया सब संसार है, खाए और सोए । दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए ।।
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । अब के बिछड़े न मिले, दूर पड़ेंगे जाय ।।
मानुस जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार । तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुरि न लागे डारि ।।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप । अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप ।।
दुरबल को न सताइये, जाकी मोटी हाय । मुई खाल की सांस से, लोह भसम होई जाय ।।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ । मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ ।।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीति । कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति ।।
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हृदय साँच है, ताके हृदय आप ।।
मैं अपराधी जन्म का, नख-शिख भरा विकार । तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्हार ।।
कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा, जाति, वरन, कुल खोय ।।
तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय । कबहूँ उड़ आँखों मे पड़े, पीर घनेरी होय ।।
संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एकी काम । दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम ।।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाहि जब छूट ।।
जानकारी के स्रोत:
https://en.wikipedia.org/wiki/Kabir
https://www.britannica.com/biography/Kabir-Indian-mystic-and-poet
https://www.youtube.com/watch?v=C30In2jLEDQ
https://www.amarujala.com/spirituality/religion/guru-granth-sahib-significance-and-importance
https://hindi.thebetterindia.com/hindi-literature/guru-gobind-dou-khade-sant-kabeer/
https://mere-ram.blogspot.com/2017/09/kabeer-ke-ram.html

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